मीरा रा सैंग पद राजस्थानी मांय है। खरी वात तो है के मातभाषा सिवाय किणी दूजी भाषा मांय उण पद रचिया कोनी। इण संबंध मांय बंगाळी, गुजराती अर मराठी विद्वानां री राय जोवा जोग है। चावा भाषा-वैज्ञानिक बंगाळी विद्वान डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी आपरी पोथी मांय लिखियो के “मीराबाई शुद्ध मारवाड़ी मांय आपरे पदां री रचना कीवी। शुद्ध राजस्थानी (मारवाड़ी) रा थोडा कवि आपरे भावां रे महत्त्व रे कारण, आखा भारत रा हुयगा, ज्युं के मीराबाई। मीरा रा पद सगळा उत्तर भारत मांय इतरा तो लोकप्रिय वणिया के उणरी शुद्ध राजस्थानी (मारवाड़ी) भाषा परिवर्तित हुय’र शुद्ध हिंदी कांनी ढळी। राजस्थान रा कवि हिंदी रा गिणीजण लागा” डॉ. तारापुरवाला लिखियो के “राजपूताना, गुजरात ने आखो मथुरा प्रदेश (ब्रज प्रदेश) मीरा ने आपरी माने पण जिण काळ मांय वे रह्या, उण टैम री इण तीनूं प्रदेशां री भाषा अेक ईज ही अर वा ही पुरानी पश्चिमी राजस्थानी। इण वास्ते अचरज नी के मीरा रा पद इण सघळी भाषावां मांय मिळे।”

गुजरात रा घणा चावा राजनैतिक नेता अर मोटा साहित्यकार श्री के. एम. मुंशी लिखे के मीरा गुजराती तो नी ही। उणरा पद गुजराती मांय लिखियोड़ा कोनी हा। तोई बात सची लागे के मीरा रे नाम सूं प्रचलित पद कितरा मीरा रा है, केहवणो कठीण है।

जुदा जुदा प्रदेशां रा तीनू ख्यात नाम भाषा वैज्ञानिक अर साहित्यकार विद्वानां रे कथन सूं अबे स्पष्ट हुवे है के मीरा फगत आपरी मातभाषा राजस्थानी मांय ईज पदां री रचना कीवी। किणी दूजी भाषा मांय नी। हिंदी, गुजराती के दूजी भाषावां मांय मीरा रा जिका पद मिळे वे सगळा के तो रूपांतरित है के प्रक्षिप्त।

हिंदीवाळा तो इण भाषा साथै घणो ईज अत्याचार कीनो। राजस्थानी रो कक्को नी जाणण वाला जद मीरा माथे शोध कार्य कर्‌यो तो कैड़ी कैड़ी भूंडी भूलां कीवी उणरा थोड़ा नमूना इण मुजब है-

1. डॉ. शशिप्रभा आपरे शोध प्रबंध ‘मीरा की भाषा’ मांय लिखियो के खड़ी बोली हिंदी में तो 'ने' का प्रयोग होता है किंतु मीरा में नहीं हुआ है। संभव है कि छंद की मात्रा में आधिक्य होने देने के लिये मीरा ने अैसे स्थलों पर 'ने' छोड़ दिया हो। “अब इण देवी नै कुण समझावै के राजस्थानी व्याकरण री प्रकृति ने उणरा नियम जुदा है। वा हिंदी कोनी? राजस्थानी मांय ओईज 'ने' करम कारक रो चिन्ह हुवे। हिंदीं मांय करता रो चिन्ह 'ने' हुवे तो राजस्थानी मांय ओईज 'ने' करम कारक रो चिन्ह हुवे।

2. अैड़ी ईज भूल गुजराती व्याकरण सूं अनभिज्ञ अे विभक्ति ने लेयर हुई है, जिका संज्ञा तथा सर्वनाम रे साथे संयुक्त हुय’र उणरो अंग वण जावे। जथा- रामे रोटली खाधी। अथवा 'माई मेरो मोहने मन हरयो' इण संबंध मांय डॉ. शशिप्रभा लिखियो के कदाच मात्रा री दीठ सूं मोहन री जग्या मोहने कर दीनो है। दूजी भाषावां नी ने जाणता थकां उणा मांय आपरो धणियाप जणावणो कितरो दोरो है, इण उदाहरणां सूं ठाह पड़े।

3. मीरा रे पदां रो संपादन घणा विद्वानां कीनो है। इण मांय राजस्थान अर राजस्थान बारे रा सगळा विद्वान सामेल है। संत साहित्य रा घणा मानीता विद्वान आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने छोड़’र बीजा सगळा मीरा रा आज उपलब्ध पदां री भाषा ने आधार मान’र उणरो विशलेषण कीनो है। इणरे परिणाम स्वरूप मीरा रे पदां री भाषा माथे खड़ी बोली ब्रज अर गुजराती रो प्रभाव दरसायो गयो है, जदके आंपां ऊपर जोय लीधो है के नामी विद्वान इण बात ने खोटी साबित कीवी है। आचार्य चतुर्वेदी डाकोर वाली प्रत ने आधार मान’र मीरा रे पदां रो संपादन कियो। राजस्थानी वर्ण माला रे आखरां री खरी ओळख नी हुवण सूं चतुर्वेदी जी अठै गोत खायगा।

इण प्रत मांय कार री प्रचुरता है ने साव अप्राकृतिक है। राजस्थानी मांय 'न' अर 'ण' दोनू स्वतंत्र ध्वनियां है। प्राकृत रे ज्युं इण मांय शब्द रे प्रारंभ मांय 'ण' कदैई नी आवे। हां तत्सम शब्दां मांय मध्य तथा अंत मांय 'न' री जग्या 'ण' जरुर बणे। पण इण कारण उणरे अरथ मांय समूलको परिवर्तन आवे। 'मन' री जग्या 'मण' हुवण सूं अरथ बदलीज जासी। 'मन रे परस हरि के चरण' पद मांय जो आप 'मन' री जग्या 'मण' कर देसो तो इणरो अरथ हुवेला के 'हे चालीस सेर रा मण (वजन) थूं हरि रे चरणा ने स्पर्श कर'। इणीज भांत 'मोहन' संज्ञा री जग्या 'मोहण' करणो अर 'नाच्यो' री जग्या 'णाच्या' तथा नंद री जग्या 'णंद' करणो विकृत भाषा रा प्रयोग है। वैदिक 'ळ' ध्वनि हिंदी मांय कोनी। जद के राजस्थानी, गुजराती अर मराठी मांय इण ध्वनि रो आगवो महत्त्व है। इणरे प्रयोग सूं अरथ बदल जावे। हिंदी मांय गोली रो प्रयोग बंदूक सूं छूटणवाळी गोळी के दवा री गोळी सूं हुवे अर दासी रे अरथ मांय ई। जद के राजस्थानी मांय दोनूं रा अरथ जुदा जुदा। इणीज भांत श्री परशुराम चतुर्वेदी री संपादित प्रत मांय व्याकरण री भूलां निरी है।

तत्कालीन काव्य भाषावां डींगळ अर पिंगळ ने आपरी रचनावां रो आधार नी बणाय’र जांभोजी के जसनाथजी ज्युं मीरा लोकभाषा ने अपणाई। खरेखर तो मीरा रे पदां री भाषा रो रूप निरधारण करण सारू उणरा पूर्ववर्ती अर परवर्ती कवियां री भाषा निजर आगे राखणी पड़सी। आपणे सोभाग सूं उणारा लिखित रूप आंपणने आज उपलब्ध है। तो इण दीठ सूं मीरा रे पदां रो संपादन करण री ताती जरूरत है।

भाषा रे ज्युं मीरा रो काव्य विधान लोकोन्मुखी हो। उणरे पदां मांय गेयता है ने ज्युं डॉ. सत्येन्द्र कह्यो। ‘मीरा रा पद मंत्र है’। रागां ने देखा तो मीरा रा पद छाईस जुदी जुदी रागां मांय गावीजण रो स्पष्ट उल्लेख है। मालकोश, सोरठ, भैरवी, मांड, टोडी, मारू, देस, पीलू, हमीर, खमाच ने प्रभाती इणमांय मुख्य है।

अलंकारां कांनी निजर करां तो लागे के अलंकारां सारू मीरा ने कोई प्रयास करण री जरूरत कोनी पड़ी। अेतो भावावेश सूं आपोआप आयने योग्य स्थान ग्रहण कर लेता। केशव रे ज्युं उणाने ठूंसण री आवश्यकता कोनी ही। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास अतिशयोक्ति आद अलंकार प्रचुर मात्रा मांय मीरा रे काव्य मांय मिळे। उणरा जिके उपमान है वे राजस्थान रे लोक ने प्रतिबिम्बित करे। उणरा पद इतरा तो सहज अर सरल के वे जन-मानस रा हार बणगा।

तुलसी ज्युं मीरा रे काव्य मांय भलांई पांडित्य नजर नी आवे, पण सैंग संप्रदायां सूं ऊपर उण मांय सहज भारतीय तत्त्व-चिंतन रा दरसण देखण जोग है।

मीरा रे काव्य मांय छंद वैविध्य घणो। दूहा, सोरठा, सवैया रे साथे साथे उण कुंडळ, ताटक अर सरसी छंदां मांय पद रचना कीवी।

स्रोत
  • पोथी : मीरा रा प्रभु गिरधरनागर ,
  • सिरजक : भूपतिराम बदरीप्रसादोत ,
  • प्रकाशक : विनोदकुमार साकरिया ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
जुड़्योड़ा विसै