लोक को अरथ छै देखबाहाळो। ‘लोकायत’ को अरथ होयो—लोक को फैलारो। आयत को भाव पूरो जतन, पूरो आचरण, पूरो व्यवहार छै। ईं तरां सूं देखबा-चोखबाहाळां को समसत आचरण समसत जतन अर समसत ब्योहार ई लोकायत ख्यो जा सकै छै। भारत में आचरण ई धरम खै छै। तो लोकायत को अरथ तो धरम होयो।
घणा लोग खै छै कै लोकायत चार्वाक धरम होवै छै; ज्ये मानै छै कै खाबो-पीबो अर मोज करबो ई धरम होवै छै। चार्वाकां की खैणात छै कै उधार ले’र बी घी प्यो। ईं में बुराई क्यूं देखणी छाईजे। हाड़ौती में मां बेटा-बेट्यां ईं हालरा गा’र सुणावै छै—
म्हारो भायो रायां को,
दूध पिये दस गायां को।
ईमें अेक बाळक ईं वीर-बहादुर बणाबा कै कारणै दस गायां को दूध प्याबा की बात खी’गी छै। बड़ा-बूढ़ा खै छा कै चन्द्रगुप्त-समुद्रगुप्त का राज में देस की आबादी बाईस करोड़ छी अर गोधन की संख्या अठ्ठयासी करोड़ छी। आज गायां की सार-संभाळ करबा की बात खैबा हाळां ईं साम्प्रदायिक अर नै जाणां-काणा-कांई-कांई नाम दे’र बदनाम करै छै। घी को दूसरो नाम आयु छै। लांबी ऊमर पाबो छावो तो गोरस की भोजन में मातरा ज्यादा होणी छाइजै। लोकायत याई बात खै छै।
लोकायत वेद प्रमाण नै मानै, पण ईं सूं वेद ई बिरोधी कस्यां होग्या? वै तो परतख ईं प्रमाण मानै छै; बस। नै अनुमान ईं मानै अर नै वेद का वचनान ईं। आख्यां देखी पै बसवास करबो बुरी बात छै कईं? जरूरत कै माफ़क खाओ-पीओ अर मोज करो। ईंमें कांई बुराई कोईनै। वेद इतिहास अर पुराणा में तो नरोगी काया अर नरमल मन की बात खी गी छै। नरोगी काया सारा धरमाचरण को साधन छै। ऊँई भुळाबा को अरथ तो धरम को बदनाम करबो छै। धरम-पराण भारत में या बात आछी लागेगी?
लोकायत तो सांची बात खै छै। डंका की चोट खै छै। कोई मानो, कै मत मानो। कबीरदासजी खैछा कै—
‘मैं जो कहूं सो आँखों देखी’
घणा लोग तो देख’र बी नै देखै छै। जे देखै छै वांकी बात कोई मानबा कै बेई तय्यार कोईनै। महात्मा बुध की लोकायतां की नाईं आंख्यां देखी बातां ईं मानै छा अर ईश्वर, परलोक आद कै बारा में कोई पूछतो तो ऊंसै खै देता कै ये सब अति-प्रश्न छै। ‘लोके वेदे च’ खैणात सूं ईं बात की पुष्टि होवै छै कै शास्तर में मांडी बात परमाणत होणी छाईजै। दोन्यां में अेकता होवै तो लोग-बाग बसवास करैगा। लोक अर शास्तर अेक दूजा का विरोधी थोड़ाई छै।
पण अस्या बी लोग छै जे खै छै; लोक की परम्परा वेद-विरोधी लोगां की देण छै। असी बातां लोगां ईं गुमराह कर दै छै। ‘फैलो सुख नरोगी काया, यो सूत्तर लोकायत का मूंडा सूं ई खड़ सकै छै। सुन्दर गठीलो सरीर बणा लै जद सामै की दुनियां ज्यादा चोखी लागैगी। खुलो आसमान, हरी-भरी धरती, नदी, पहाड़, सूरज, चन्दरमा, फूळां का रंग अर गंध ये सब देख’र मन गा उठैगौ—‘हे मातृभूमि तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।’
ईं लोकायत आँख नै ईं तो भारत की हर माता की गोद का बालक्यां ई दशरथनन्दन राम अर जसोदा नन्दन गोपाळ बणा द्या। परभाती सुण ल्यो घर-घर में—‘जागिये गुपाल लाल भोर भयो प्यारे’ अर गोपान सूं ऊधोजी नै खै दी कै थारो बरह्म म्हाकै कांई काम आवैगो, ऊ बना हाथ गायां कस्यां दोवैगो? बना पावां कै नाचैगो कस्यां?
ईं दीठ नै ईं गुरु ई भगवान सूं बडो बणा द्यो फांवणा ईं देवतो बणा द्यो, पती ईं परमेसुर बणा द्यो, खमार ई परजापत बणा द्यो। जननी जनम भोम ईं सरग सू बड़ी बाताबा हाळी बी लोकायत की आंखी ई छै। बामण महान अर झाडू लगाबा हाळो महत्तर वेद की वाणी छै।
अयं मे हस्तो भगवान्, अयं मे भगवत्तरः।
यो हाथ भगवान—‘अपना हाथ जगन्नाथ’ अर यो भगवान सूं बी बड़ो। सब बराबर, सबको सम्मान बराबर, सबसूं आत्मीयता अपणेस बराबर—कोई छोटौ, नै बडो। भारत त्याग भूमि छै। सामै ऊबो आदमी दीखैगो अर ऊंकै लेखै त्याग करबा को भाव जागैगो जदीं तो देश त्याग भूमि बणैगो। हर बात में लोक आगै, हर शास्तर में लोक मानत्या आगै। गलत्यां सूं सीख लेबा की आदत बी लोकायत ई बणा सकै छै। भोग सूं रोग होवै छै, सब जाणै छै। तो त्यागपूर्वक भोग करबा को रस्तो खोज्यो। अर सहज योग कांई होवै छै जो समै पै बण जावै ऊ ई। अन्नदाता कै तो भगवान, कै करसाण। माता की नाईं दूध देबा हाळी गाय बी माता। देव सोबा-जागबा लागग्या। प्रवृत्ति अर निवृत्ति को समन्वय बी लोकायतां की ही देण छै। ईं लोक धरम ईं समझबा की जरूरत है। ऊंई नास्तिक खै’र नाड़ मोड़ लेबा की कोईनै।