भ्रुसंड सस्त्र साज सैं अरे गजिंद्र आय कै।

जुरे जु वीर जुध में तुरंग धाय धाय कै।

कढै कमंधनाथ तीर तीर के तुनीर तैं।

कढ्यौ सुचाप हाथ ज्यूं कढ्यौ समुद्र छीर तैं॥

किये कटक नाद मांन दुर्जना प्रमूक गौ।

सुन्यौ तहीं करीस मूंह दान नीर सूकगौ।

चले अनेक सस्त्र बांन पेनअेक भेद ही।

पयोध धार पुज ज्यों वृजेंद्र कांन छेद ही॥

छुटै कमंधनाथ तीर नाग अंग लाग ही।

मनूं धसै पहार में भुजंग सोभ पाव ही।

रहै खुली जु नैक फांग लागगैं घटान पै।

कढै कपोत पोत चंच ज्यूं नदी तटान पै॥

लगी मतंग कुंभ वीच कुंभ यौं विराज ही।

मनू छटा नवीन तैं त्रितीय दंत साज ही।

फटै कपांन लाग कुंभ मुक्त भूम पै ढरै।

मनुं घटा सु टूंक तैं विछूट तारका परै॥

कहूं कटी सदंत सुंड भूम पै परी लसै।

मनूं भुयंग अंग पै मयंक की कला वसै।

वडे मतंग जंग होत लाल रंग में भए।

मनू पहार विंध कै पलास फूल से छए॥

अपार रक्त वै चले वडे मतंग अंग तै।

मनू झरै मजीठ रंग अद्र तुंग श्रंग तै।

खरी करीन पै कहूं सरक्त पत्र धारनी।

मनूं सिंदूर रंग देन अैन फौजदारनी॥

स्रोत
  • पोथी : नाथ चंद्रिका ,
  • सिरजक : उत्तमचंद भंडारी ,
  • संपादक : नारायण सिंह भाटी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर
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