जिस विध आभै अरण विवाण, इसो हरि दरसंण की परवाण।
परसै पाव परातम संत, न दीठी पूठि न पायो अंत॥
सदा सनमुख सिरजण हार, नमो निज मूरति पार अपार।
संतोषी पोखी सरब जांण, जपै कर बावै हाथ्य फुराण॥
अपूठै मणिये अंतरि जाप, जपै मुख सिंभु सोइ है आप।
कथै सुरबाणी सुरगै भेख,आयो थलि संभर आप अलेख॥
तब की तिस मोर झीगोर करै, घन बूठा तूठा दोष हरै।
सुख सागर स्वांति जिसी पपीयै, मुख मीठी बांणि सदा जपीजै॥
निरंजण नाथ जको निराकार, करो हरि देखां डील हजार।
दुवागर मेल कहयौ ज दई, हरि कीया डील हजार सही॥
जठै बग सांवल काग सपेत, तठै हरि पूजा कीनै हेत।
दया जित देव तथागत राज, जठै रिव किरणा सीजै नाज॥