गइवर गळइ गळत्थियउ, जहँ खंचइ तहँ जाइ।

सीह गळत्थण जइ सहइ, तउ दह लक्खि विकाइ॥

तउ दह लक्खि विकाइ, मोल जाणवि मुहँगेरा।

कड़वा कारणि कथिन, कोपि खउँदाळिम केरा॥

वेढ कीध पड़ियार, निहसि कट्टारउ दुहुँ करि।

राइ ग्रहउ नरसिंघ, गळइ गळहथ जउँ गइवरि॥

कवि पूर्व पद्य (एकणि वन्नि वसंतड़ा.....) में उठाये गये अपने प्रश्न का स्वयं ही उत्तर देता है- हाथी के गले में गलबंधन पड़ा रहता है,(इन्सान उसे बांध कर वश में कर सकता है) जिससे उसे जिधर खींचते हैं, वहीं जाता है। इसी भाँति, यदि सिंह भी अपने गले में बंधन सहन कर ले तो वह दस लाख में बिके। अर्थात वह हाथी से कई गुना महंगा हो सकता है। भाव यह कि सिंह के समान निर्बंध एवं दुर्दम्य अचलदास ने भी बंधन नही सहा, माँडू के सुल्तान की अधीनता स्वीकार नही की, जिसके फलस्वरूप अपने वीरोचित्त कटु वचनों के कारण वह बादशाह का कोपभाजन हुआ।

स्रोत
  • पोथी : अचलदास खिची री वचनिका ,
  • सिरजक : शिवदास गाडण ,
  • संपादक : शम्भूसिंह मनोहर ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविधा प्रतिष्ठान, जोधपुर
जुड़्योड़ा विसै