ओउंकारे आदि गुर, निरंजण निराकार।

आकारे जुग जौ गयौ, आप रह्यौ निराकार।

आप रह्यो निराकार, सांम्य सुनकार संमायौ।

अलख नै लखीयौ जाय, भेद कही विरले पायौ।

आदि विसंन बोहरूप किया, जुगे जुग जुवा।

वील्ह कह जपौ विसन, जो आपे तैं आपे हुवा॥

वील्होजी कहते हैं कि औंकार रूप आदि परमात्मा का स्वरूप है जो आकार रहित है परन्तु उसने इस संसार को स्वरूप प्रदान किया है। स्वयं आकारहीन होते हुए भी वह संसार को अपने में समाहित रखता है। ऐसे स्वरूप वाले ब्रह्म को देखा नहीं जा सकता। इस संसार में विरले ही उसे जान पाते हैं। आदि विष्णु ने अलग-अलग युगों में अपने अलग-अलग रूप प्रकट किये हैं। ऐसे ब्रह्म स्वरूप आदि गुरु विष्णु का संसार के लोगों को जप करना चाहिये।

स्रोत
  • पोथी : वील्होजी की वाणी ,
  • सिरजक : वील्होजी ,
  • संपादक : कृष्णलाल बिश्नोई ,
  • प्रकाशक : जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर ,
  • संस्करण : तृतीय