सियाळे री रात अंधारी, बादळ बरसै धाकड़ली।
चेतौ भूल्यो कुंवर पङयौ है, मोरां माथै घोड़कड़ी॥
ऊंचै धोरै जगै दीवटौ, घोड़ी देखें आंखड़ली।
धीमा-धीमा पगल्या धरती, पूगै फळसै पड़ली॥
ठंडौ पड़यो कुंवर दिखै है, पथरीजी है आंखड़ली।
अमरौ चारण सांभ उतारै, लाय सुवावै मांचड़ली॥
लकड़या तिणखा स्सैं की बाळ्या, वाळी घर री गूदड़ली।
इण जतना सूं कांम सरै नीं, कुंवर टळै नीं मौतड़ली॥
बूढौ चारण आजै -भाजै, समझ न आवै बातड़ली।
सुवक्यां खाती कुंवर पड्यौ है, पल-पल गिणती सांसड़ली॥