(अक्षर बतीसी)

काया काचे कुंभ समान कहैं क कौ।
धांखै धेखी काळ सही देसी धको।
करवट वहतां काठ ज्युं आउखो कटै।
परिहां न धरै तोइ धर्मसीख जीव नट ज्युं नटै॥

खमिजैं गाळि हितूनी इम कहै ख खौ।
रीस करी कहैं तेह कहीजे हित रखो।
आणा सैंणा वैण सुं आख्यां उपरैं।
परिहां धर्म कहै सुख होइ धूअें ही धूप रैं॥

गरथ पामी गुण कीजे इम कहे ग गो।
साहमी साधु सुपात्र संतोषीजैं सगौ।
लाधि छै जो लाछी कहैं धर्म लाहल्यौ।
परिहां संची राख्या सैंण अपांनै स्वाद सौ॥

घड़ी मांहे घड़िजाहे, आयु कहै घ घो।
अमर न दीठौ कोई जीव अठा अघौ।
पहिली को दिन च्यार दिन को पछै।
परिहां आखर कहै धर्मसीह सही चालणो अछै॥

नेह वधै नहीं नेट, हुए अंगुल ढीहीयै।
लुळि नमीयौ तो का सुं लोक लजा लीयै।
गांठि हीयै धर्मसी कहै सुख मतां गिणौ।
परिहा औ गुण इणहिज ड़ ड़ि यो आमण दूमणौ॥

चकवा ज्युं चल चित्त, न हूजे कहे च चो।
पर वसि प्रीति लगाइ तळफि कैं क्युं पचो।
सिरज्यो है सम्बंध किसु हा हा कियै।
परिहां धीरज धर धर्मसीह रखे हारे हीयै॥

छक देखि खेलीजैं एम कहो छ छै।
पछतावो जिण काज सही न हुवै पछैं।
आखर जे धर्मसीह हुवै उतावळा।
परिहां विणसाडे निज काज सही ते वाउळा॥

जोबन जोर गिणैं नहीं केहनैं कहैं ज जो।
गरब चलें तां सीम हुवे देही गजौ।
धीरो रहे धर्मसी कहै हासी होइसी।
परिहां जोबन बीते कोइ न साम्हो जोवसी॥

झगड़े म करै झूठ, कहै छै युं झ झै।
द्यै नहीं कोइ साखि दुखे देहि दझै।
कूड़ै की परतीत न, साचो ही कहै।
परिहां रागां बिना धर्मसी कहै चेजो क्युं रहे॥

न धरो तिण सुं नेह, मिले नहीं जे मुखै।
दुपड़ौं दीसै दूर, अनै बोले दुखै।
आखर एह अछै जो इणहिज बेतरो।
परिहां चीतारैं नहीं कोइ चंचयों भाट चुलेतरो॥

टळिये नहीं विवहार, ग्रही निज टेक रे।
बात सहु नौ दीसे एह विवेक रे।
निखरौ ही धर्मसी कहै ल्यो निरवाह रे।
परिहां महादेव विष राख्यो ज्युं गळ मांहि रे॥

ठांम देखि उपगार करो कहियौ ठठै।
तत्त तणी तूं बात म नाखि जठे तठै।
कीजैं नहीं धर्मसी उपगार कुजायगा।
परिहां सींह नी आखि उघाड़्यां सीह ज खायगा॥

डेरा आइ दीया दिन च्यार कहै डडौ।
गयो हंस तब काय बळों भावैं गडौ।
वाय वाय मिल जायें, मट्टी मट्टियां।
परिहां खूब किया धर्मसीह, जिणें जस खट्टीयां॥

ढुंढ़ो ढ़ाढ़स लागि, दोस मिस कहै ढ ढो।
पारद गोळी पाक करौ पोथा पढ़ो।
जंत्र मंत्र बहु तंत्र जोवो जोतिष जड़ी।
परिहां घाट बाध धर्मसीह न होइ तिका घड़ी॥

नहु लंघीजै लीह, एक मावीत री।
राखीजै वळि लीह सदा रज रीति री।
ईस तणी इक लीह धरो धर्मसीह अखी।
परिहां राणें आखर न्याय त्रिणे रेखा रखी॥

तत्त जाणी इक बात तिका कहै छै त तो।
माया संचै सुंब तिको खोटौ मतो।
खाडि गाडि राखी ते कोइ खायसी।
परिहां थेट नेट धरती में धूड़ ज थायसी॥

थिर न रही जगि कोइ इसो बोलै थ थो।
फोगट फिरि फिरि कांइ माया जाळें फथो।
टळै केम धर्मसीह कहै आयौ टांकड़ौ।
परिहां मांडी आप जंजाळ उळूधौ माकड़ौ॥

देइ आदर दीजैं दान कहै द दौ।
माणस रैं धर्मसी कहै आदर सुं मुदौ।
पाणी ते पिण दूध गिणो हित पारखी।
परिहां आदर विण साकर ही काकर सारिखी॥

धरौ सीख मोटांनी एम कह्यो ध धै।
बाळक जीव्या हंस पड़्या घाजै बधै।
शुकै दिधी सीख कढ़ी कानां तळै।
परिहां राज गमाइ गयो बलिराइ रसातळै॥

न करो मन में रीस कह छै युं न नौ।
मानी छै जो रीस तोइ वइगा मनो।
तांण्या अति धर्मसीह कहै तूटै तणी।
परिहां राइ पड़्या मन मोती जाइ न रेहणी॥

परदेसी सुं प्रीति म करि कहीयो प पे।
जोरै उठी जाय तठा सुं तन तपै।
बार बार चीतारैं धर्मसी बत्तियां।
परिहां छूटै नयणां तीर भरायै छत्तियां॥

फळ दीधै फळ होइ कहै छै युं फ फौ।
निफळ पहिली हाथ किसुं आणै नफो।
सेवा कीधां ही ज सही कारिज सरै।
परिहां दाखै धर्मसीह दिल्ल ठरैं तो द्वाफुरै॥

बोल्यां मोटा बोल किसुं कहियो बबे।
दीसैं आयौ दाव तठै नचो दबै।
साच नहीं जिणरें मन तिणसूं सरम सी।
परिहां धैठे माणस सुं हित केहो धर्मसी॥

भलपण कीजैं काइंक एम कहो भ भौ।
लोकां माहे जेम भली शोभा लभौ।
जीव्या रौ पिण सार इत्तौ हिज जाणीयै।
परिहां उपगारें धर्मसी कहै काया आणीयै॥

मित्राइ रो मूल कहै धर्मसी म मौ।
नयणे देखौ मित्र तरै पहिली नमौ।
दीजे लीजे कहीजे सुणीजे दिल्ल री।
परिहां खावै तेम खवावै प्रीति तिका खरी॥

या यौ कहै यारी करि तिण हीज यार सुं।
पड़ीयां आपद मांहि बुलावै प्यार सुं।
पूरौ प्रीतो ते जे तळफै तिण पगा।
परिहां सुख में तो धर्मसी हुवे सहु को सगा॥

रंक राउ इक राह चलै बोलै र रौ।
द्वेष राग धर्मसी कहै एता क्युं धरौ।
एता नव नव रंग बणावै अंग सुं।
परिहां राख सहुनी होस्यै एकण रंग सुं॥

लोभ गमावै शोभ कहै छै युं ल लौ।
भाखै लोक सहु को लोभी नहीं भलौ।
लालच वसि धर्मसी कहै थोड़ो लग्गीयै।
परिहां मान महातम मोह रहैं नहीं मग्गीयै॥

वात घणी वणसाड हुवै छै व वो।
निखरी नीकळि जाइ उदेग हुवैं भवो।
बहु गुण छै धर्मसी कहै थोड़ो बोलीयै।
परिहां थोड़ी वस्तु सदाइ मुहंगी तोलीयै॥

शीख न मानें सुंआलारी को सही।
कलियुग मांहे खैंडैं री पृथ्वी कही।
आंकत्रीयो ते लाठी ले ने उरडियौ।
परिहां मांन्यो अखरां में पिण शशियो कोठा मुरडियौ॥

क्षेत्र सहे खण धार खरैं रिण नांखिसै।
खेले खीले वांस खले खेत्रे खसै।
पेट काज धर्मसीह इता दुख पाड़ीयै।
परिहां फाड़्यो पेट सुन्यायै ख खें फाड़ीयै॥

सत्त म छाडौ सैंण कह्यो छै युं ससै।
कष्ट पड़े ते ईस कसोटी में कसै।
जोवो सत्ते सिद्धि हुइ विक्रम जिसी।
परिहां साकौ राखैं सोइ सही कहै धर्मसी॥

हरखै हियौ जिण नै देखि कहै ह हौ।
पूरव भव री प्रीति कंइ तिणसें कहौ।
हेत कहै धर्मसीह छिपायौ नां छिपै।
परिहां चुंबक मिळिया लोह तुरत आवी चिपै॥

स्रोत
  • पोथी : धर्मवर्द्धन ग्रंथावली ,
  • सिरजक : धर्मवर्द्धन ,
  • संपादक : अगरचंद नाहटा ,
  • प्रकाशक : सादूल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, बीकानेर (राज.) ,
  • संस्करण : प्रथम
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