रजथानी भासा गजब, अबखी होवै आज।

चावै हिवड़ो चाव सूं, आवड़ सुण आवाज॥

हरदम राख्यां हुळसतां, तरवारां सूं ताज।

पण भासा नैं पांतरया, स्याम देयजै राज॥

कीरत आज कळीजगी, ज्यों जुध फंसै जहाज।

पाछो अेकर फेर दे, राजसथानी राज॥

बिन आपां की मावड़ी, कीकर सरसी काज।

बांधी आज है बेड़ियां, कद आसी इणरो राज॥

हेला कर-कर हारिया, कानां हुई खाज।

मिनख मिनख अर मानखै, राजसथानी राज॥

सगळी भासा सांवठी, नवरंगां पर नाज।

अणमोली है आपणी, देसी कांई राज॥

अेकी जाजम आविया, सगळा आज समाज।

देदे रे हे केसवा, रजथानी नैं राज॥

नैणां में आवै नहीं, लिछमण जैड़ी लाज।

दिन ढळतां व्है देरियां, मात तिहारे राज॥

बरस घणेरा बीतिया, देख्या के दगबाज।

पण अबै देणो पड़सी, राजसथानी राज॥

सुणतां आणद ऊलड़ै, उर में करै उजास।

मैतव मिळसी मानता, आवड़ सुण अरदास॥

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली तिमाही पत्रिका ,
  • सिरजक : कमल सिंह सुल्ताना ,
  • संपादक : श्याम महर्षि