चोपई
राघव व्यासि कीउं मंत्रणुं, रतनसेन नृप झेलण तणुं।
नृप मनि कोई नहीं छल-भेद, खुरसांणी मनि अधिकु खेद॥
ऊघाडे मेल्ही गढ पोलि, मिलिया मांणस टोला-टोलि।
आलिम साथि लिया असवार, लोहइ लुंब्या त्रीस हजार॥
व्यास सहित साथइं ततकाल, माहे पेठा सहु समकाल।
कला इसी का कीधी सोइ, पइसुं तु नवि दीठउ कोइ॥
आवी माहि हूआ एकठा, तब सगला दीठा सांमठा।
रतनसेन मनि खुणसिउ सही, आलिम आविउ अंगणि वही॥
नृप पिण सेना सगली सार, असवारे मेल्ह्या असवार।
तुंगे तुंग मिल्या एकटा, जाणि कि दीसइ बादल-घटा॥
आलिम पिण न सकइ आंगमी, न सकइ नृप पिण आलिम गमी।
आलिमसाहि कहइ सुणि भूप, कांइ तुम्ह मेलु कटक सरूप॥
हुं इहां विढवा आविउ नहीं, गढ जोएनइ जाइसु सही।
म धरु मन महि खोटु खेद, मुझ मनि कोइ नहीं छलछेद॥
नृप जंपइ आलिम अवधारि, कटक कोइ मेलुं न लिगार।
जइ तुम्ह वचन हूउं हिव इसुं, कटक करी नइ करिवुं किसुं॥
पिण तइं आण्या त्रीस हजार, किणि कारणि एवडा असवार।
तुझ मनि काइ सही छइ वात, धूतपणारी दीसइ धात॥
आलिम जंपइ नृप अवधारि, प्रांहुणडां नइ इम म पचारि।
थोड़ा व्हो अथवा व्हो घणा, झेली लीजइं निज प्रांहुणा॥
धांन तणु छइ आज सुगाल, घणा घणा कांइ कहु भूआल।
अम्हि आव्या था जिमवा सही, विढवा कारणि आव्या नहीं॥
जीमणरु जाणु संकोच, खरच करंतां आवइ खोच।
तु वलि पाछा मेल्हां एह, जिम भाखु तिम राखा रेह॥