चोपई
डिल्लीपति पतिसाह प्रचंड, अवनि एक तसु आण अखंड।
अलावदीन नवखंडे नाम, नृप सहु तेहनइं करइ सिलाम॥
एकछत्र धर सगली धरइ, सुर नर सहु को तिणथी डरइ।
अवनि तणु अधिकु अभिलाख, लसकर तसु नव त्रिगुणा लाख॥
तिणि ते सुणिउ बंभण गुणी, तेड़ाविउ डिल्लीनइ धणी।
व्यासि जइ दीधी आसीस, जांणि के बेठो छइ जगदीस॥
व्यासि कह् या तसु कवित अनेक, सभा सहित रीझिउ सविवेक।
आगे ई थो बंभण गुणी, पातिसाहि दी पहिरामणी॥
मांन मुहत वधीउ पुर माहि, पूछइ तेड़ी नितु पतिसाह।
उलगतां तूठउ अवनीस, पूगी राघव तणी जगीस॥
वास्या गांम ग्रास दे घणा, राघव चेतन बेही जणा।
पातिसाह पासइ नितु रहइ, राघव कवित कथा नितु कहइ॥
इक दिन आविउ ए अभिमांन, रतनसेन मुझ मलीउ मांन।
वालुं वयर किसी परि एह, सांमिधरम नइं दीधु छेह॥
तु हुं जु पदमिणि अपहरू, चित्रकोटथी अलगु करूं।
पदमिणि नारि खरी पडवडी, लगि पतिसाह करूं परगडी॥
राघव चिंतइ अधिक उपाइ, प्रगट वात मुखि न कहइ काइ।
भाट एकसुं भाईपणुं, कीधुं मान मुहत दे घणुं॥
हीआ माहि आलोची हेत, खोजासुं कीधु संकेत।
वित्त बिहुनां दीधु घणुं, मित्र करी कीधुं मंत्रणुं॥
सभा माहि काढ्यो घणी, वात किसी परि पदमिणि तणी।
अन्न दिवसि बेठउ सुलितांण, मिली सभा सहु रांणो रांण॥
अति सुकमाल पसम पडवडी, कलहंस पंखि तणी पंखड़ी।
अति सुंदर करी धरी सभाउ, तव तिणि भाटि दीउ ब्रह्माउ॥