चोपई
कंठ ठवी कोमल वरमाल, जय जय शब्द जगावइ बाल।
शंघलदीप तणु हिव धणी, भगति करइ ते भूपति तणी॥
साहमणी अति मेली घणी, परणावी बहिनर पदमिणी।
अरध देस अरधा भंडार, विहची दीधा अधिक उदार॥
परिघल दीधी पहिरामणी, हरखित नारि हूई पदमिणी।
बि सहस बांदी रुपनिधांन, पदमिणी पासि रहइ सुविधांन॥
भमर घणा गुंजारव करइं, पदमिणि परिमलि मोह्या फिरइं।
पदमिणि तणुं पटंतर एह, भूला भमर न छांडइ देह॥
पदमिणि रूप कही कुण सकइ, इंद्राणी थी अधिकी जकइ।
रतनसेन परणी पदमिणी, आस संपूरण हुई मन इणी॥
दिन दस पंच तिहां सुखि रही, रतनसेन नृप अवसर लही।
शंघलपति सुं शिख्या करइ, विनय वचन मुखि अति उच्चरइ॥
शंघलपति साचु भूपाल, आदर अधिक करी सुविसाल।
रंगरली बहिनड़नी बहू, शंघल नु पति पूरइ सहू॥
सेन घणी शंघलनाथ, रतनसेन नइ हूउ साथि।
सेना सगळी समुद्र मंझारि, प्रवहण पूरि करायु पार॥
समुद्र परइं पुहचावी करी, शंघलनाथइं शिख्या करी।
प्रीति रीति पालिउ पडिवनु, ब्यूंही अधिक वधारिउ विनु॥
शंघलपति पाछा संचर् या, रतनसेन डेरइ उतर्या।
भाट कला भुंजाई तणा, डेरइ डेरइ दीसइं घणां॥