हजरति तुम मंका के पीर, मैं सूर सुरलोक कहाऊं।
हम तुम सरभरि नही, साहि तुम कौं समझाऊं।
जत छाड़ै जोगी नहीं, पत न तजे रजपूत।
सेख न सौंपु साहि कौ, जौ लग सिर सावूत॥
हजरति अबही नही करी, करूं जैसी होय आई।
मुसलमान चहुवान, साहि अैसी चलि आई।
मीरा खुवाजे पीर सो, खिसे खेत अजमेरि।
असी सहंस लख येक उलटि, मक्का गये न फेरि॥
असुर मारि अजपाल, चहूं दिस चक्र चलाये।
वीसलदे अजमेरि, पाय मंडलीक लगाये।
प्रथिराज साहि गौरि गह् या, छांड़ि दियौ कर दे चुरी।
तुम इतो सेख परि हठ कियौ, साहि बुधि कौनैं हरी॥
मिलै सेस जै सूर, मिलै उदीया असतागिर।
उड़गन सहित अकास, आये जौ लगै पहुंमि परि।
हठ हमीर तोऊ न तजै, सुनि दिलीसुर साहि।
पैहलै सीस हमीर का, पीछैं महमा साहि॥
धर अंबर बिचि आय, साहि थिर रह् या न कोई।
जरजोधन दसकंध, करन अरजन से केई।
अमर साहि कलि को नहीं, वौहौ हसम देखि नहीं भुलिये।
तुमसे किते अलावंदी, या धरनी परिये धुलिये॥
आप न सूर कहाईये, ओर नहीं कायर गिनिये।
अपनौ जस मुख आप, साहि कवहूं नहिं भनिये।
लिषे लेख करतारनै, सो हजरति मिटै न कोय।
को जांणौ रणथंभ गढ, हजरति कैसी होय॥