चळापळ ओगनियां री कोर,

भोपणां किण भूलां रो भार?

बिहारै गळै अडोळी नार,

सोधवा इण धरती वो हार!

अर्थ :

(डूबते हुए सूर्य की अंतिम किरणों से चमकती हुई बादलों की कोरें ऐसी सुन्दर लगती हैं मानो संध्या सुंदरी के कानों में लटकते हुए) ओगनियों की (सुनहरी) कोरें चमक रही हों। उसकी (क्षितिज रूपी) भौहें जाने जीवन की किन भूलों के स्मरण से बोझिल हैं। (जान पड़ता है यह दुलहन अपना कंठहार खो बैठी है। इस धरती पर उसी हार को खोजने के लिए यह अलंकार-विहीन गला लिये इधर उधर (व्याकुल सी) डोल रही है।

स्रोत
  • पोथी : सांझ ,
  • सिरजक : नारायणसिंह भाटी ,
  • संपादक : गणपति चन्द्र भंडारी ,
  • प्रकाशक : राजस्थान पाठ्य प्रकाशन जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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