काग-कबूतर दै उडारा, ऊंची दीसे चिलखड़ली।
पांख पंखेरू ओटी लेवै पड़तां मोटी छांटड़ली॥
काळि- कळायण दिखै उमड़ती, बरसै बादळ धाकड़ली।
मोटी-मोटी छांट्यां न्हाखै, हरसे धोरा धरतड़ली॥
घरा-घरां सूं भेळी होजा गीत उगेरै साथड़ली।
सावण महिणै रात पड़यां सूं, मधरी गूंज तानड़ली॥
बादळ छाया मेह बरसावै, सांवणियै री रातड़ली।
ठंडी-ठंडी पून सूवावै, पलकां छाई नींदड़ली॥
सावणियै रा लोर आवतां, घर-घर दीस हरखड़ली।
मांचा डेला हाथां लीना, धरै मायनै झुंपडली॥