गज गबनी प्रति चंद, छंद कोमल उच्चारिय।

मनहरनी रस बेलि, सुरन सागर रस धारिय।

बंक नयन बय बाल, प्रान बल्लभ सुखदाइय।

अगुन निगुन गुरु ग्रहनि, गवरि पूजा फल पाइय।

भए आदि अंत कविता जिते, तिन अनंत गति अति कहिय।

अनेक ग्रंथ तिन बरनवत, यों उचिष्ट मति मैं लहिय॥

स्रोत
  • पोथी : पृथ्वीराज रासो ,
  • सिरजक : चंद बरदाई ,
  • संपादक : श्रीकृष्ण शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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