कुंदन सो तन बोलत मधुर वैन,

अरुन अधर चूमि पीय मुख कौ महति।

काम कामिनी तै लौनी म्रग ते सलोनी,

आंख रस भरी भुजपास भरी पिय को गहती।

कहै सिरदार सोहु नेम सो वसन पीत,

संपूरन जाति मपि धनि सरिग कहति।

मध्यम सुधाम जाको गावत सरद प्रात,

लाल को मगन मधु माधवी सदा रहति॥

कीन्हो तन मंजन लगायो द्रिग अंजन,

चित कै कंज खंजन के पुंजन दहति है।

अतर अरगजा मंगायो सो लगायो,

अंग अंग मुक्तान भरी खरी उमहति है।

कहै सिरदार साजे सकल आभूषन है,

यातैं ब्रज भुषन जु रावरी कहति है।

सुनिवे सुजान वन गायन चरावन को,

आजु व्रषभांन सुता आवन चाहतु है॥

सिर पै गिरद डारै दुरद पुकारै खरै,

झरै (जातो) जात गात वास वन मैं लीयौ।

हाल ही प्रवाल को वदन बिरंग भयौ,

अंग अंग हेम जरि अंग आगि में दीयौ।

कहै सिरदार पीक स्यामल सरीर कीन्हौ,

कटि हीनो कंठी रव लीन्हो वन को भीयौ।

कारन कहारी तोहि बोलत विहारी-नारी,

री चंद्रमुखी तुं कलकी चन्द्रमा कीयौ॥

(और) की कहा है हेत जिन सौं महा है हाल,

लाल वाही देषि वाल सबही बिसारोगे।

बांसुरी सुरन गीत वाही के मगन गहो,

वाही की गली में निस बासर बिहारोगे।

कहै सिरदार जग वासो हिल मिलैगै हौ,

अनत जहो तब वाही डर धारोगे।

वाही छिन चैन ब्रजचंद ऐन नैन पै हों

राधिका को मुख चंद जा छिन निहारोगे॥

चंपक वरन अंग कंचुकि सुरंग सोहे

कोह रति रंभा (सचि) दीजै जो वडाई है।

तन सुख सारी वोढै तन सुकुमारो बाल,

देखो जोति जाहिर जवाहिर की छाई है।

कहै सिरदार कीजै विपिन विहार यासौ,

लीजै भरी अंक छाहि कदम सुहाई है।

देति दिखाई हाल व्रखभान जाई लाल,

देखो सो नवेली व्है अकेली वन आई॥

स्रोत
  • पोथी : सुर-तरंग ,
  • सिरजक : सरदार सिंह ,
  • संपादक : डी.बी. क्षीरसागर ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर। ,
  • संस्करण : प्रथम