अस्यो करम कोडै ज्योऽक मिलती मनै जूं की जूण,
वांकी केस-कूञ्जां बीच भोंरो-सो बिचरतो मैं।
मांखी-मांछरां की भी जूण मिल्यां वांका ही,
अधरां अर कपोलां को इमरत पान करतो मैं॥
खटमल भी बण्याँ सैं सदा रमतो सेज वांहीं की,
दे-दोतो पिराण पण न पिलँग सैं उतरतो मैं।
चींचड़ी जवो भी बण्यां वांका ही चरणाँ को,
इमरत पी पीऽर भव-सागर सै तरतो मैं॥
देख्याँ बिन दिसा-सूळ, सोण और म्हूरत मन,
जीवन की बाइसिकल पर सवार हो ही गयो।
हाथ हेन्डिल पर और पर पगां नै मेल,
जैयाँ तैयाँ बचपण की गळी सैं पार हो ही गयो॥
जोबन की सड़क पर बेधड़क हो जद लगाई दोड़,
लाज को सिपाही ड्यूटी सैं फरार हो ही गयो।
आँख्याँ को ऐक्सीडैन्ट होताँ ही धड़ामचित्त,
लाखाँ कै बीच दो दिलाँ मैं प्यार हो ही गयो॥
दस-दस हजार बरस जीवै छा जंडै लोग,
आज पोंछ जावै छै पचासवाँ बरस मैं।
लात दे जमी सैं जळ निकाळै छा ज्याँकै आज,
टूँटी दाबताँ भी हो रह्यो छै दरद नस मैं॥
आवै छै अचंभो याँ बाताँ नै देख-देख,
हाथाँ ही जमानू बिस घोळ रह्यो रस मैं।
कुदरत पर बिजै प्राप्त करबा जा रह्या छै ज्यो,
होता जा रह्या छै खुद कळाँ कै आज बस मैं॥
मानस रचबाळा माळै भाटा बगाया गया,
कथा बांचबाळा पण बैठ्या पग पुजावै छै।
म्हैलाँ का रुखाळा सदा सोवै छै झरोखां मांहि,
कारीगर चंवाळ्या रात टपर्यां मैं बितावै छै॥
मूरत घड़बाळां को नांव-गांव जाण्यूं कुण?
पण्डा अर पुजारी तो पुजापो खूब खावै छै।
भाषा का सृजक तो गळा फाडै छै गल्याँ मैं और,
भाषा का प्रचारक धन-दोलत कमावै छै॥