जाकै घर ताजी तुरकीन कौ तबेला बंध्यौ।

ताकैं आगै फेरि फेरि टटुवा नखाइये।

जाकै खासा मलमल सिरी साफ ढेर परे।

ताकै आगै आंनि करि चौसई रखाइये।

जाकौं पंचामृत खात खात सब दिन बीते।

सुंदर कहत ताहि राबरी चखाइये।

चतुर प्रवीन आगै मूरख उचारि करै।

सूरज कै आगै जैसे जैंगणां दिखाइये॥

स्रोत
  • पोथी : सुंदर ग्रंथावली ,
  • सिरजक : सुंदरदास जी ,
  • संपादक : रमेशचन्द्र मिश्र ,
  • प्रकाशक : किताबघर, दरियागंज नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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