एहो हो विधाता! तेरी कैसी यह लेखन है,
भाग्य में लिखे सो काहू विधि सों टले नहीं।
न्यायी के अन्यायी दयामय के कठोर तुम,
हृदय तराजू महँ तोले तो तुले नहीं।
पापी को विमान धर्म ध्वजी को पाताल ठौर,
रावरे मनोर्थ अग्र काहू की चले नहीं।
देश कों उबारयो जिहिं दुर्गदास जारिबे को,
तीन हाथ भूमि मारवार में मिले नहीं॥