दोहा
दारू परदारा दुहूं, है तन धन री हांण।
नर सांप्रत देखो निजर, नफौ और नुकसांण॥
कवित्त
रोग को भवन ज्यूं कुजोग को समन जानो,
दया को दमन ओ गमन गरुवाई को।
हिम्मत को हासकारी विद्या को विनाशकारी,
तितिक्षा को तासकारी भीरू भरवाई को।
ऊ मर विचार सिख पाप रिख श्रापन में,
विषै विष व्यापन में पौन परवाई को।
भगतन को भाई ओ कसाई निज कामनी को,
शत्रू सुखदाई सुरा हेतू हरवाई को॥
पीथल के तोख पार्यो महमुंद को मांन मार्यो,
बुद्धसिंह को बिगारि्यो नीके निरधारू मैं।
खून बिन जैत खोयो डूंगरसिंह कां डबोयो,
जोर को मरन जोयो हिये मोज हारूं मैं।
तगत कां कियो तंग सज्जन कां मृत्यु संग,
कोटापति कां अपंग ऊमर उचारूं मैं।
तोस पोस ओस मारू काय अपसोस कोस,
हाय दारू तेरे दोस कहां लौं पुकारूं मैं॥