देखन वदन चंद चतुर चकोर बना, ललचि कै थकित रहि जात है।

कंपि कर घूँघट लौं पहूंचि सकती नांहि, होय कैं सिथल अधबीच ठहरात है।

खोल्यो परत पट चाह कै अमल छक्यो, धडि उर आतुरता चाव सरसात है।

नवल वनी के नैंन अति रिझवारय तें, पीय को लखन अखर अकुलात हैं॥

स्रोत
  • पोथी : मध्यकालीन कवयित्रियों की काव्य साधना ,
  • सिरजक : बृजदासी रानी बांकावती ,
  • संपादक : उषा कंवर राठौड़ ,
  • प्रकाशक : महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध-केन्द्र, दुर्ग, जोधपुर।