देखन वदन चंद चतुर चकोर बना, ललचि कै थकित रहि जात है।
कंपि कर घूँघट लौं पहूंचि सकती नांहि, होय कैं सिथल अधबीच ठहरात है।
खोल्यो न परत पट चाह कै अमल छक्यो, धडि उर आतुरता चाव सरसात है।
नवल वनी के नैंन अति रिझवारय तें, पीय को लखन अखर अकुलात हैं॥