विकास री गंगा अर

कादै री नाळी

चालै अड़ो-अड़।

गंगा मांय खावो खळखोटो

गात निरमळ होय जावै

गरीबी रो मैल धुप जावै

पण चेतो राखो

उण नाळे मांय

पग नीं पड़ जावै।

इण नाळै री भींत

घणी तिसळणी

नेडै़ जायां पड़्यां सरै

पड़्यां पछै

निसरणो घणो ओखो।

इण खातर

जुवान भायां अर बैनां!

मानो म्हारो कैवणो

इण नाळै रै लगाद्यो

हिम्मत अर थावस रो डाटो

अर विकास री गंगा नैं

बैवण द्यो आपरै

तेज वेग सूं।

खावण द्यो गोता

अर न्हावण द्यो इण मांय

आपणै समाज रा

पांगळा, आंधा, बै'रा, गूंगा

मिनखां नैं,

होवण द्यो चंगा

डील अर मन सूं।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : परमेश्वर लाल प्रजापत ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham