थारो रूसणो...उफ!

कर देवै थनैं कम रूपाळो।

समझबा में या बात,

लागसी थनैं अजै दो-च्यार दन।

चैत का महीना में बरसती बरखा की जश्यान,

म्हारी छट्टी की मार्कशीट में गणित का नंबरा की जश्यान,

या म्युनिसिपल्टी का बाग में ऊगती

घास की जश्यान-

जचै, या थारा पर कदी भी!

खुद ने देय’र दोस

भगवान की सृष्टि नैं कम रूपाळो कर देबा को,

भर जाऊं मांय ग्लानि में अतरो,

जतरो व्है जातो हो उन्हाळा की छुट्टियां में

होमवर्क करबा कै पछै।

आगली दाण मत रूस ज्याजै अश्यान,

जश्यान सळ पड़ जावै म्हारा बुसट पे-

ताकि लिखणी पड़ै मनैं

अेक और कविता थारा रूसबा का ऊपरै।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : जय नारायण त्रिपाठी ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण