सरोतै बिचाळै फंस्योड़ी सुपारी

जद बोलै ''कटक..!''

दो फाड़ हुय जावै...

जित्ता कटक बोलै

बित्ता बेसी किरचा बणावै

लोग केवै सुपारी कटै नीं

वठै ताणी

मजो नीं आवै-खावण रो!

आखी सुपारी तो पूजण रै काम आवै

पूज्यां बाद

कुंकुं-मोळी सागै पधराईजै...

सुवाद समझणिया सरोता राखै

बोलावै ''कटक..!''

अर थूक सागै, जीभ माथै

गुड़कावता रैवै सुपारी नै!

सुपारी बापड़ी या सुभागण

जे जूण में आई है- लकड़ां री

अर सुभाव है- सुवाद देवणो

तो ओळभो-स्याबासी किणनै?

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : हरीश बी. शर्मा ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
जुड़्योड़ा विसै