अहंकार ज्यूं इतरै सूंटौ,
चंचलता में मन सूं होड।
अपजस ज्यूं फैलै चांफैरौ,
इनकलाबियौ है बेजोड़
कोप जियां खांखळै सूंटियौ,
जोबन री ज्यूं भरै उफाण।
मौत रूप कुदरत रो धाड़ी
सूंटे रा कुण करै बखाण?॥1॥
ज्यूं गींडी रे टोरौ लागै, मुड़ चालै करती सरणाट।
बिंयां सूंटौ सरणबट्ट हो, भागै सदा मिलातौ पाट।
ऊजड़ बगणौ, औजसगारौ, रुळतौ राही तीखौ तीर।
रस धारा में कांकर गेरण, त्यार खोड़लौ जरडू वीर॥2॥
सूंटौ जद घमसाण मचावै, ऊंळ-सूंळ मारै चांफैर।
भिळै ठसक निपुणाई कांपै, पूंछ दबाले बबरी सेर।
जूंझारू जोधा ज्यू ओपै, जरख चढी डाकण खूंखार।
जिनगानी रा तंबू उखड़ै, सूंटौ जद मारै फटकार॥3॥
के कुदरत रो तातल घोड़ौ, चिमक भाग रह्यौ कर सरणांट।
के कुदरत रो पंखौ चालै, घणै वेग सूं कर घूंघाट।
उथल-पुथल रो हामी सूंटौ, मानो है समता रो दूत।
सूंटे रे बळ नैं कुण झेलै, यो कुदरत रो बरडू पूत॥4॥
सूंटौ आ जद धर पर चालै, खंख उडै बादळ रे रूप।
सूरज रो तप मंदौ पड़ज्या, ज्यूं गादीं सूं उतर्यां भूप।
पांख पंखेरू पड़ै टपाटप, टूटै जन जीवण री आस।
मानौ मौत धरा पर घूमै, करण चराचर रो चिरनास॥5॥
कांतिदूत ओपै सागीड़ौ, जे थोड़ौ तू करै सुधार।
भूखा पोखै प्यास तोखै, लगा शोषकां रे फटकार।
अन्यायी नैं जड़ सूं खोदै, न्याय बचावण नैं दे प्राण।
समता रो सूंसाट मचा दे, ल्या जन हित में जोस उफाण॥6॥
उडै महल में जद गुलछर्रा, शोषण रे बळ दीपै स्थान।
दीन टापरा भूखा झूरै, पड़ै टपकला टूटी छान।
मां जिलफां नैं लियां ठिठुर री, खजै गरीबी भरती ब्याज।
दीन-हाय बिचरेगी जिण दिन, कांति सूं टियो आसी गाज॥7॥
जद शोषण सांकळ सूं जकड़्या, भूखा अधनंगा डील।
पड़्या लुटीजै शोषक झपटै, ज्यूं झपटै सरणाती चील।
जणां बाप रै कांति सूंटियौ, धर धूजै गरळावै व्योम।
शोषण रा गढ़ पड़ै धड़ाधड़, ठसक रुळै ज्यूं पिघळै मोम॥8॥
आंसूड़ा जद नैणां कांनीं, चाल पड़ै डरता हो मूक।
कोप घुटै अेतर मन सिळगै, मांय दबै दुखियारी कूक।
लाज लुटै जद दीन हीन री, फैलै धर पर पापाचार।
कांति रूप सूंटौ सूंसावै, लगा ढलेचर रे फटकार॥9॥
दबै जवानी जोस भरी जद, मूक वेदना कूकण त्यार।
जनवाणी पर ताळौ लागै, घूमै नित जुल्मांरी डार।
मां बैंनां री लाज लुटै जद, गरळ घूंट ज्यूं पी अपमान।
जन मन उकळै जोर न चालै, कांति सूं टियौ छेड़ै तान॥10॥
दुख रा तारां सूं गुंथ्योड़ौ, जद फैलै शोषण रो जाळ।
ऊळझ पड़ै चालै अर उळझै, जग हार्योड़ौ नर कंकाळ।
जण-जण में दुख रोदन फूटै, टूटै जद धीरज री पाळ
धरती रे कण-कण सूं प्रकटै, कांति सूंटियौ हो विकराळ॥11॥
तीस मारखां धरम धुरंधर धरती तोलणिया रण वीर।
समै सूंटियै में सै रुळगा, ज्यूं सुसज्या टीबां में नीर।
जिणरा काम रम्या कण-कण मे, बो झेली सूंटै री मार
उथल-पुथळ रो द्रिढ विस्वासी, सत पुरसां री मानी हार॥12॥
शासन रो पींदौ जद कांपै, दल’ में हो दळ-दळ रो राज।
मच्छ गळागळ माचै जद तू, आए ले आतम आवाज।
गिण-गिण चुणियै जयचंदां नैं, ‘राष्ट्र जौंक’ नैं कर मत माफ।
दे फटकारौ इनकलाब रो, कादा-कीचड़ होज्या साफ॥13॥