तर-तर बधतौ जावै

सुपनां रौ विगसाव

अर सांच संकीजतौ-सधतौ।

हरमेस कुतरीजतीति

आपरी जड़ां रै ओळ-दोळे

सिमटण लागै

मिनख जद आपरी दीठ नैं।

नुंवा बागा पैराय

खुद सूं मूंडौ फोरण लागै।

कितरा दिनां तांई

नकार सकां

म्हां सूरज नैं आंख्यां मींच'र ?

किणी मिस

धार लेवां अंधारौ

अंतस रै मांय

पण उजियाळी देवैला

म्हारी साख

म्हारै समै री

सगळी बहियां रै पानां मांय।

मांडौ अर फेरूं

मेटता जावौ

म्हारी साख री ओळियां,

तर-तर बधैला

हुवतौ जावैला

सुपनां रौ विगसाव

छेवट सांभणी पड़ैला

सांच री जड़ा

मंडैला मंडैला

साख री ओळियां

समै री बहियां रै मांय।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : सत्यदेव संवितेन्द्र ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी