(निराळा रो ‘स्नेह-निर्झर’ बांच्या)

रेत ही बस रेत ही

बस रेत ही बस है जठै

स्नेह निर्झर किणनै कैवै

स्नेह निर्झर हौ कठै?

आम री वा डाळ

सुखी ही सरयू थांनै दिखी

और कोई नांव होवै पिकशिखी रे पिकशिखी

थे जाणता

म्हे छाणता

किणनै कैवै है कोई पंक्ति लिखी

रे अणळिखी रे अणलिखी रे अणलिखी

बस रेत ही बस रेत बस रेत ही...

ही दाझ कोई थे दह्या

बिन दाझ जुग जळमां रह्या

म्हे अण कह्या रे

अण कह्या रे

अण कह्या...

म्हे अण रह्या रे अण रह्या रे अणरह्या

बस रेत ही बस रेत ही बस रेत ही बस...

है जठै

पूछती फिर सी ठिकाणौ

स्नेह निर्झर हौ कठै?

स्रोत
  • पोथी : राजस्थळी – राजस्थानी मांय लोक चेतना री साहित्यिक पत्रिका ,
  • सिरजक : तेजसिंह जोधा ,
  • संपादक : श्याम महर्षि