सुण—ओ आभा
सुण—म्हारा दाता
म्हारै बळतै पगां
जळतै कंठ
झुळस्योळै
अंतस री आवाज।
म्हनै बता
अै किणरा पगलिया है
पसर्योड़ै रेत-समंदर माथै?
थूं तौ म्हनै देख्यौ है
म्हारा आभा —म्हारा पाळणहार
भटकतां-तिरतां
रेत रै इण समंदर में
इण छोर सूं उण छोर तांई।
म्हारी तिरसणा तौ देखी है —थै
आभा!
भतूळियै में फंसियोड़ै
सांस सारू तड़पतै
डरप्योड़ै हिरण दांई,
म्हनै पांणी खातर
भरम कांनी दोड़तां देख्यौ है
थे घणी बार
अेक टक।
पण
म्हारी सुणवाई नीं व्ही,
पांणी री अेक बूंद खातर।
घसीटाराम री आंख
कींकरियां रा हाथ
करै अरदास,
थूं कांई इत्तौ निरमोही
निरदयी—निरभावी है
म्हारा दाता।
म्हैं औ भरम पाळ लूं
के म्हैं ताकतवर हूं?
के मान लूं
मांनखौ व्हैग्यौ है
पांणीहीण?
अेक बात जांणू हूं
म्हारा सिरजणहार
के म्हैं नीं हूँ अेकलौ
म्हारै जिसा मोकळा
निरखै हैं ऊंचै आभै
आस सूं।
म्हैं निढाळ हुय’र पड़ूं
उणसूं पैला सुणलै
म्हारी अरदास
कर दै मै’र
म्हारा सिरजणहार
सेवट म्हैं देख सकूं
जमीन तरड़ाय’र ऊगती
आस री
कूंपळां।