पैलां लोगां कनै धन-दौलत तो हो कोनी

पण सुख-चैन घणो हो

मन में, घर-घर में।

मोटो खाता धान, कपड़ो पैरता मोटो

मोटी राखता सोच, पेट राखता मोटो

बात-बात पर

हुवता कोनी झगड़ा

वै लोग घणा हा मस्त

माया सूं मोटा तगड़ा,

आपा-धापी भी ही कोनी

आज री तर्‌‌यां पाळता कोनी फालतू लफड़ा।

सगळा हा संतोषी अर सुखी।

पण पिछण री संस्कृति आयां

पलटण लाग्या लोग अर वांरी सोच

कांईं ठाह कद

लोग बदळग्या?

लाय-धाय री लाय लागगी सगळै।

प्रेम घटग्यो, द्वेष बधग्यो

नीं-नीं व्है सो बधग्या रोग।

फिरै लोगड़ा भाग्या

कै सुख-चैन नीं मिलै

संतोष मिलै, मिलै सांति कियां ईं।

पण लाय-धाय

मोट-मिजाज अर अहंकार नैं नीं छोडै।

जो चीज पड़ी है खुद रै कनै

खुद री सोच में, खुद रै मन में।

वा खुद कनै सूं मांगता फिरै

सोधता फिरै धन में।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत अगस्त-सितंबर ,
  • सिरजक : गिरधारी सिंह राजावत ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृत अकादमी, बीकानेर