पीपळ रो पान

छेवट उण नै डाळी नाख राळे।

बळबळती धूड़ माथै

टावरी पौन साथै

लागै पौन रो पाधरो फटकारो

पानड़ो खड़बड़ीजतो छेवट भुर ज्यावै

का बकरी चर ज्यावै

जे कदाच वो पान

कनलै कुएं री खेळ मां पड़ ज्यावै।

तो वो आप रो ऊपरलो आवरण

हरापणो-आप री हरियास।

गळ-घुळ'र धुप ज्यावै

फगत मायला तांता रैय ज्यावै

अर जद लाम्बी ऊमर री औकात पाय ज्यावै

ऊपरलो आवरण गळ ज्यावणै सूं

पानको ऊरमाआळो बण ज्यावै

अर पीपळ अर पौन रै खड़बड़ाट नै भूल ज्यावै

आपरै असली आपै मां ज्यावै

ऊपरलो दूर हुयां मांयलो दीसै

वो उण रो असली रूप हुवै

पण औड़ो वृतान्त हुवै कदमकाल ही

नातर खत्ता खातो पत्तो आपरो पतो ही भूल ज्यावै

अैड़ी गत मानखो आद जुगाद सूं भोगतो आय रैयो है।

झड्यै-पड्यै री कुण कदर करै

कदर तो जागांसर ही हुवै

नेह नै थान तो छूटै ही

मिनख नैह नै खूटे ही

आगलो पत्तो झडै

लारलो बावडै

चक्कर सदीनो है

जकै अविद्या नै मेट ली

मिथ्या आवरण नै त्याग दियो।

वो असली आपो है।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : सूर्यशंकर पारीक ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी