थारी सगली पीड़

अर इण जूंण रा

थारा सगळा जंजाळ

म्हारै निजरां सामी

पण म्हैं धार लीवी मून

इण जगत रै सागै।

अबोली भीड़

नीं भर सकै कदैई

थारै सागै पग,

नीं बांच सके

निजरां सांमी मंडियौड़ा

थारै भविसरा आखर,

कदैई तोड़ नीं सकै आपरी लीक

म्हारा बीर !

सोच थनै लाय

किण मारग लै जासी ?

थारी रीस

बाळ नांखैला थारा

सोवणा सुपनां

अर म्हारै भविस रा आसरा।

अेकर म्हारै सारू

पाछी पाछळ फोर

टूटला अवस

इण जगत री मून

मुळ कैला निजरां सांमी रा

सगळा चितरांम।

स्रोत
  • पोथी : अंवेर ,
  • सिरजक : सत्यदेव चूरा ,
  • संपादक : पारस अरोड़ा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी