नुंवै बरस रो

कांई नुंवापणौ

हर नुंवै बरस

आपां औरूं

एक बरस

पुराणा पड़ जावां।

मन री हूंस

हुवै नीं पूरी

लारै रैय जावै

फगत पिछतावा।

पछै

किण भांत रो

नुंवापणौ लखावै।

जूना जमियोड़ा

बरसां पर एक थर

फेरूं लाग जावै।

दुख रै डूंगर

थर माथै थर

जमता जावै।

सातूं सुख तो

पावणियां पावै।

ज्यांरी बिलखती जूण

वांरा कद होठ हंसै

अर मनड़ो गावै।

बै बापड़ा

केवै? किणभांत?

नुंवो बरस मनावै।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत जनवरी ,
  • सिरजक : विक्रमसिंह गून्दोज ,
  • संपादक : गोरधनसिंह शेखावत ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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