म्हारै घर मायनै

एक नीमड़ी रो रूंख

विगत चार सालां सूं

चेत रियो है।

व्हीरी डाळियां नै

म्हारी बस्ती रा लोग

दांतुन करबा रै मिस

रोज तोड़ जावै

पण व्हा नीमड़ी किण्हीं नै

जाय नै न्हीं क्हैवे

व्हा थाणा कचहरी भी

रपट लिखाबा न्ही जावे

इण नाटक ने म्हैं

विगत कई दिनां सूं

देख रियो हूं और महसूस

कर रियो हूं उणरा दर्द नै

या बात जाणता दर्द नै

या बात जाणता व्हैता भी

कि

नीमड़ी रो स्वाद ह्वैवे तो

कड़बा काचरा की यान

और

इणरै इण्हीं कड़वापण

मांय ही छिप्योड़ी मिठास नै

जो मिनख पहचाण जातो

तो शायद...

आज मिनख-मिनख रै बीच

इतरो कडवोपण न्ही

उपजतो...।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत मई 1995 ,
  • सिरजक : नरेश व्यास ,
  • संपादक : गोरधन सिंह शेखावत ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर