मिनखां रो मिनखपणों बोल्यो बढ़तो ही बढ़तो जाऊंला।

हूं बाड़ पहाड़ गिणूं कोनी,

रोको तो आज रूकूं कोनी॥

जुग जुग बढ़तो ही जाऊंला॥

मैं जात पांत मानू कोनी,

छूत अछूत जांणू कोनी,

धरमां रा भेद मिटाऊंला॥

अे झगड़ झूंपड़ा दुनियां रा,

क्यूं मने मिटाओ चावै॥

मांही मां मजो चरवांऊँला॥

करषण मजदूरी हाथ पांव,

जोवण रो जुग में नयोदांव॥

शोषण रो भूत भगाऊंला॥

मैणत है मारो हाड मांस,

ईमान प्रेम दो फूल पांख॥

हिल मिल हिवड़ों हुलसाऊंला॥

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत अक्टूबर 1981 ,
  • सिरजक : जवानमल पुरोहित ,
  • संपादक : चन्द्रदान चारण ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृत अकादमी, बीकानेर
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