हां,

आज

होय रियौ है

घणो

कविता रो सरूप विस्लेसण

पण

हुयरी है

कविता खुद

अरथ अनाथ,

अर उणरो विसै

मिनख

फिर रह्यौ है

मगजी मारतो

क्यूंकै

कोनी करै

‘कोई’

तरळो

कविता रै विसै ‘मिनख’ नै

सबदां रै सांचै मांय ढाळण रो

कविता मांय।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : कमल किशोर पिपलवा ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास
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