मखमली जमीन रो

नान्हों बिरवो ही म्हैं

जद म्हैं ही

मा रै घरां

मा पाळती

बाऊ जी पोखता

खूब बधै ही

तन सूं अर मन सूं

दिन—रात

अचाणचक आई बा रात

जद फेरां रै मिस

म्हारी जमीन सूं उपाड़

म्हानैं रोप दी

सासरियै रै ठींगळै में

अब

जड़ रोपूं तो

फूटै ठींगळो

नीं रोपूं तो

बळूं म्हैं

म्हारो नीं

ठींगळै रो वजूद है

अब तो।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत फरवरी-मार्च ,
  • सिरजक : भगवती पुरोहित ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर