वांरै कैवण मुजब

अळगो-अलायदो है

म्हारो होवणो

म्हारी काया रै होवणै सूं।

ठीक है, मान लूं म्हैं

कै नीं हूं म्हैं

फगत सरीर

नीं हूं सरीर

पण सरीर ही

क्यूं संभव करै

थारै खातर

म्हारै होवण नैं।

होवतो रैवूंला

काया रै बगैर कीं भी

पण म्हैं

‘म्हैं’ तो

पक्कायत नीं होय सकूंला

इण खोळियै रै नीं रैया।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : संजय आचार्य ‘वरुण’ ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण