कविता रै
कळस-कूंगरै पर
चाव सूं चढ नै
हे कवि !
थूं इज तो सूरां दातारां री,
संतां देवां रिखेसरां री,
जुग व्हाली कीरत कही,
सौरम महकै आज तांई सही।
कविता रै
कळस कूंगरै पर चढ नै
हे कवि !
समै-समै रै फेर नै मान सांची,
बगत री व्हाली बातां वांची,
रजवट री परंपरा नै रांची,
खरी-खरी बातड़ी खांची।
कविता रै
कळस-कूंगरै पर चढ नै
हे कवि !
पथ चूकै नै कदै न चेतायो,
तो फिर तूं काहे को कवि कहायो,
जिण सिध मन कवि धरम निभायो...
उण रो जीणौ सारथक बण पायो।
कविता रै
कळस-कूंगरै पर चढ़ नै
हे कवि !
जीवण- मरण रै दोहले मरम नै,
अंतस रै उजास आंकियो,
सबदां री संगत सिरजण लेखै,
परम भाव नै प्रकासियो।
कविता रै
कळस-कूंगरै पर चढ़ नै
हे कवि !
समूचै साच नै छू लियो,
पल भर जीवण जी लियो,
धन्य हुई थारी वाणी,
जग नै आ धिन जाणी।