हुया घणा ही मोटा कविसर

जका करी कविताई

दियो आसरो बां नै

बां री, बिड़द बडाई गाई!

जका दिखायो

रणखेतां में तलवारां रो पाणी

बिना शीश रै लड़तै धड़ री

कीरत घणी बखाणी!

जका जुद्ध स्यूं भाज्या कायर

बांरी करी खिंचाई

कुळ रा कलख बताया बां नै

खोटी-खरी सुणाई!

जका दियो धन-मान

सराई बै बांरी दातारी

लाखपसाव दिया गज-घोड़ा

बां री मैमां गाई!

पण बां में कोई-सो बणियो

बीं परजा रो भीड़ी

लागां-बागां लगा जकी नै

घणी अणूंती पीड़ी!

कियां लूंट लेता निबळां री

लूंठा खरी कमाई

दिख्यां फूठरी नार पुगाता

गुरगा जियां किंयाई!

जका रखेलां रा जाया बै

मिनखाजूण जिनावर

खड़ता बां रा खेत बापड़ा

बिना मोल रा चाकर!

देता बां नै खावण सारू

लूखी-सूखी रोटी,

जे चढ़ ज्यांती कोई निजरां

बड़ी हुवो'क छोटी!

निज जायोड्यां सागै कुकरम

करता बै इन्यायी

बां निलजां नै जका फीठ्या

धिक बां री कविताई!

जे करवाता मदछकियां नै

भर'र चूंठिया चेतो

तो बै कवि रो धरम निभाता

जग जस बां नै देतो।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत काव्यांक, अंक - 4 जुलाई 1998 ,
  • सिरजक : कन्हैयालाल सेठिया ,
  • संपादक : भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी
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