नी रै अठै

पाणी वाळी नदी

हरिया भरिया खेत

चारुमेर पसरी है

रेत रेत

रेत रेत

पण

इण रेत रै हिवडै है

अथाक, अकूत हेत।

सगळी मनखा जूण केवै-

जठै हेत है

बठै सदाई है

पाणीं वाळी नदी

हरिया भरिया खेत

जीवण री संजीवणी आस

अजर-अमर विस्वास

अमिट उजास

जठै हेत है

जठै हेत रा खेत है।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : दीनदयाल ओझा ,
  • संपादक : डॉ. भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर