घाव, जिका घणा दिन पैली

थे म्हारै तन माथै लगाया।

बां माथै खरो खरुट आयग्यो

घाव भरीज गया पण

छोड़ गया अेक

अमर, अमिट निसाण

घावां रै उण निसाणां नै

जद-जद देखूं

तो याद आवै उण बीती बातां री,

हथियारां री

जिण सूं थे म्हारै तन माथै किया हा

छोटा, मोटा, लोम्बा, चौड़ा

घणकरा घाव

हर घाव अबोलो रय

चुप चाप बतावै

आप आपरो इतिहास

कड़ी सूं कड़ी जोड़

म्हारै कानां नै

जद कदै हूं

अेकांयत में बैठ

बीती नै बिचारूं

म्हनै इसी लागे

उण बेळा

अेकलडै नै

कै हरेक घाव रे जबान आय गई है

अेक-अेक कर सगळा घाव

आप आपरी आप बीती

जनम सूं आज तांई री

बताय रया है

म्हैं सगळी बातां रा हुंकारा भररयो हूँ

घाव।

जिकां रा अबै खाली निसाण रया है

बखत बे बखत दरद इसो करै

जाणै आज लागा है।

घावां रो म्हारो।

अबै अेक अटूट नातो हुयगयो है

उगरी सगळी बातां

लाख भूलण री कोसिस करू

आडी अवंळी बात घाल बिसरूं

पण जद कोई

दूजो आदमी घावां रै बाबत पूछै

उण बेळा

सगळा घाव हरया हुय

अेकै सागै मूंडो खोल

बोलण री कोसिस करै

कैई बळ-बळता भाव

नैणां सूं सावण भादवै रै

बादल्यां ज्यूं झरै

घाव! थिर रैवतां थकां भी

मन नै घणौ घुमावै

भरमावै भटकाबै

अेक अदीठ अणमाव

खळबळी मचावै।

चितरामा'र नक्सां री रेखाओं री तरै

बोल घाव रो

हरेक रूप कुरूप

लैण कुलैण

ओळखाण करावै उणरै

गैहरे अरथ रो।

घावां रो गहरौ अरथ

अकारथ नहीं सकारथ है।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : दीनदयाल ओझा ,
  • संपादक : मोहनलाल पुरोहित