पांगरी है,

धरू दुक नी

ठेठ

मारे मईं नै मईं।

हवार के हांज

मने लागे नै कुसे

मारी हेत्तिऐ कविताऐ

आको दाडो आने सरैं।

नै लकं विताड़े

रोज आम लकाड़े

वड़ाऐ

तो कारजू टाडू पड़ै।

पण

आकी रातर

आँउअं पडै़ टप-टप

वेलं जोवू

धरू वदै लप लप।

स्रोत
  • पोथी : वागड़ अंचल री ,
  • सिरजक : प्रदीप भट्ट ,
  • संपादक : ज्योतिपुंज ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham