अरे! खिणगेट्या

हाल तांई

न्ह बिसर्‌‌‌‌‌‌‌यौ तू

रंग बदलबो,

तू

रंग बदलै छै

नाड़ हलावै छै

छियां पताई खेलै छै

खाली मन बहलाबा कै लेखै

पण

म्हारा भाई

बंद कर ईं खेल कै तांई

क्यूं कै

ये मनख

थांसू जादा हूंस्यार छै/रंग बिरंगा छै

आछी तरां जाणै छै

थांसू जादा रंग बदलबो/घु’सर घात करबो

नाड़ उपर-नीचै ह’लार

सौडै बुलाबो

फैरूं

दांई-बांई घुमार

सत् सूं/बात सूं मुकरबो

म्हारी बात मानै तो

अब छौड़ दै ईं लत कै तांई

क्यूं कै

लत बरसां पराणी होगी

थांसू कतनी

गुणां आगै बढग्या

तू तो

खाली रंग बदलबा अर नाड़ हलाबा

मांय रह्ग्यौ

अे तो पूरा रंगीन छै

तरै-तरै का मुकौठा बणाबो,

बेचबो अर खरीदबो भी

सीखग्या

अतना न्ह

चैरा पै चैरा लगा'र

मनख्यांई नै डराबां म्हे/घात करबा म्हे

माई'र होग्या

सांची बात तो या छै कै

तू तो रह्ग्यो

खिणगेट्यौ को खिणगेट्यौ

अर ये मनख

थांसू भी जादा आगै खडग्या

थांरा भी बाप बणग्या।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत अगस्त 2005 ,
  • सिरजक : शिवचरण सेन ‘शिवा’ ,
  • संपादक : ओम पुरोहित ‘कागद’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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