चुणाव को बरबूल्यो।

पांच बरस मं आवै छै।

पण लोकतन्त्र की खांगी।

बैठ जावै, तो गाबा मंई।

धूम मचावै छै।

बबूल्या को भरणाटो।

चोमेर हो जावै छै।

अगवाणी मं गाजा बाजा।

सरू हो जावै छै।

भीत्यां पै भात-भांत।

का चतराम मंड जावै छै।

लाडांन की बनोरी की तो।

छटा ही नराली होवै छै।

जीनै देख'र लोकतन्त्र रोवै छै।

ईमानदार अर सांचा मनख

सोवै छै।

लाड़ा फूलां की माला

नोटां की माला सूं लद्या

थक्या, मूंडा पै मुस्कान

की पन्नी चपकायां, मनड़ा

मं कुरसी पै चपकबा का

लाडू फोड़ता दोन्यूं हात।

स्रोत
  • पोथी : भात-भांत का रंग ,
  • सिरजक : कमला कमलेश ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन