अबै बठै नीं गाया जावै

मंगळ-गीत,

नीं होवै जलमदिन री पारट्यां,

नीं राखै अबै बठै कोई

अेकादसी रो बरत

अर नी बणै

तीज-तिंवार माथै कोई मीठो!

अबै बठै दिखै फगत

धूड़ अर माटी सूं भरयोड़ा आसरम

अंधारै खुणै माय

ऊंधी टंग्योड़ी चमचेड़ां

कळाबाजी खावता ओपरा पंखेरू

अबै बठै

इसो की भी नीं है

जिण मायं सोध सकां आपां कोई आस।

पण फेरूं वै जुड़्योडा है

लोगां रै ऊंडै अंतस सूं

जका चावै- निरांत।

जका सुण सकै

इण बूढी होयोड़ी भीतां रा हेला

पून रै सागै खड़-खड़ावतै सूकै पानड़ां रो संगीत।

साम्हीं ऊभी बूढी भींतां माथै

आपां क्यूं नी बांच सकां

आपां तावडे, आंधी अर बिरखा री

लिख्योड़ी कविता।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : नंदकिशोर सोमानी ‘स्नेह' ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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