हे अरजन! आसकती तज कै,

सिधी अणसिधी में समभाव।

रै’तो बुध सूं योग साधकै,

करम कर्यां जा मन रै चाव।।

समता रो यो भाव, योग है

सांचल मन सूं इण नै धार।

दीन अदीन बणै पळ मांही,

समता रो सुख अपरम्पार।।1।।

सिद्धी-अणसिद्धी में उळ्झ्यां,

करम-वासणा लेवै दाब।

मो' माया जागै पुरजोरां,

समबुद्धी री उतरै आब।।

समभावां री जोत निराळी,

समता सूं जागै सत-भाव।

दुख-सुख में समभाव राखतो,

करम कर्यां जा मन रै चाव।।2।।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : डॉ. उदयवीर शर्मा ,
  • संपादक : डॉ. भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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