दुनिया अेक बजार!

जठै आपां बेचां हां खुद नैं,

कीं और पावण खातर।

खुद नैं बेचा हां, नरा रूप में, नरी जग्या।

बेच सकां खुद नैं,

खुद का मांयला मनख नैं,

पण कदी खुद, खुद नैं कांई नीं खरीद सकां?

दुनिया अेक बजार!

जठै आपां मोल लेवां नरी चीजां,

आपणा टैम, आपणा सुपना

अर आतमा नैं बेच-

वै चीजां, जकी बिना चाल सकतो हो आपणो जीवण

आखी दुनिया मोल लेणो चावां हां, पण

कदी मोल लेबा की इच्छा नैं कांई नीं बेच सकां?

दुनिया अेक बजार!

जठै बिकै है, घर-गवाड़ी, मकान-दुकान

गाडी-घोड़ा अर प्रेम;

कदी कम मोल में, अर कदी बत्ता में-

बेचा हां, आपणै बाळपणै नैं

जवानी खातर

अर जवानी नैं बूढापा खातर

सब कर सकां, पण

ईं बजार में वैपार का बना कांई नीं की सकां?

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : जय नारायण त्रिपाठी ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण