नगळर्यो छै आखा जीवा नैं

फरर्यो छै हड़प’र

खून पसीना की कमाई नैं

काटर्यो छै चोड़ै-धाड़ै

शांति का रूंख

उजाड़ दी घणी ठांमा

कर घाली बंजर

हरी-भरी धरती

पटकद्या मांस का लोथड़ा

च्यारूंमेर फाकर्या छै

मुठ्यां बारूद की

बाळदी काया

समाज अर देश की

पटकद्या मोटा फफूला

अब पेर र्यो छै तलवार नैं

यो आतंकवाद को रावण

काढर्यो छै दांत

उलळतो जार्यो छै

दनादन

बैठ्यां छां

ऊं बाण की आस में

जे सोखैगो

नाभि में धंस’र

आतंक का पाणी नैं

काढैगो अहंकार रा आंतड़ा बारै।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : मनोज सोनी ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण