अंधियारा

म्हारै ओळ दोळ

हो घण गहरा

लहरावै हा।

म्हैं हो निरास

आसारौ संबळ तज

बढग्यो

खुद रो अस्तित्व मिटावण नैं

छिणभर मैं

या धरती यो अंबर,

गत आगत

होग्या एकमेक

म्हारा नैणां मैं

अै झील गिया।

अविचल सा

अै पाखाणी हिवड़ा

हो धगधगायमान,

जाणे अध्धर सूं

झूल गिया।

पुळभर मै

म्हारा खुद रा

नाता रिश्ता सगळा

भूल गिया।

पण वीं ही पुळ

आभास हुयो

म्हारै अंतस मैं

होळै सूं आयर

आसा री मास्रिण वाणी

सुवणां में इमरत घोळ दियो।

अर बूझ्यो सवाल

हे देव पुरुष!

हे अम्मर पिरथी रा तपोपूत!

हे मानव!

हे जगती रा जेठी!

पायर रजभर सी

विसम वाय,

यूं धूज गियो।

भुजबळ रा हे अमर प्रतीक!

आज थूं डगमगा गियो।

करतो रियो वरण

सैंग दिसावां रो

स्वीकार करयो हो थें

अभिनंदण

उणा रो

जिको पराजित हुवै कदै भी

वीं महाकाळ सूं

आज उही रूडै जीवन सूं

क्यूं रियो हार।

कईं खोयर भी ओकात आपरी

हर लेवैलो

मानस रा सैंग भार।

चाणचकै अंतस् रा अंबर मैं

दामण दमकी

अळगी गी मधुराग कणां सूं

सिणगारयोड़ी,

अंतस रा अर्णव मैं

सूतोड़ी उमंगां री सीप्यां नैं

झंझोड़ गई।

पसर गियो आलोक अनोखो

अर छळना सगळी

म्हारै मन री

धार रूप लहरां रो

दूरी बहगी

कुण जाणे किण देस गई।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : लक्ष्मी कमल ,
  • संपादक : दीनदयाल ओझा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित संगम अकादमी